कांच की बंद खिड़कियों के पीछे
तुम बैठी हो घुटनों में मुह छुपाये
क्या हुआ यदि हमारे तुम्हारे बीच
एक भी शब्द नही है।
मुझे जो कहना है कह जाऊँगा
यहाँ, इस तरह अनदेखा मेरा खड़ा होना
मात्र एक गंध की तरह
तुम्हारे भीतर बहार भर जाएगा
क्योंकि जन घुटनों से सर उठाओगी
तुम बहार मेरी आकृति नही
यह धुंधली सी शाम
और आंच पर जगी
एक धुंधली सी भाप
देख सकोगी
जिसे इस अंधेरे मेंअ
पिघला कर मैं छोड़ गया होंगा
- सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
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